Lekhika Ranchi

Add To collaction

आचार्य चतुसेन शास्त्री--वैशाली की नगरबधू-


59. शालिभद्र का विराग : वैशाली की नगरवधू

शालिभद्र के मन में भोगों के त्याग की तीव्र इच्छा उत्पन्न हो गई। उसने सब सांसारिक सुखों की विनश्वरता को समझ लिया। फिर उसने माता के निकट आकर दीक्षा लेने की अनुज्ञा मांगी।

सेट्ठिनी भद्रा पुत्र के आग्रही स्वभाव को जानती थी। उसने अपनी निरुपायता देखकर पुत्र को समझाकर कहा—"तेरा विचार शुभ है, परन्तु तू जो सब वस्तुओं का एकबारगी ही त्याग करेगा, तो तुझे दुःख होगा। इससे तू क्रमशः त्याग का अभ्यास कर और जब तुझे कठोर जीवन का अभ्यास हो जाय तो सर्वत्यागी हो जाना।"

शालिभद्र ने माता का कहना मान लिया। उसने प्रतिदिन एक-एक स्त्री को त्याग करने का निश्चय किया।

अपनी बत्तीसों पत्नियों को उसने अपने निकट बुलाकर कहा—"हे देवाप्रियाओ, तुम सब प्रियदर्शना, मृदुभाषिणी, स्नेहमयी हो और मुझे प्राणाधिक प्रिय हो। परन्तु विनाश के दुःख से यह सम्पूर्ण लोक जल रहा है। जैसे कोई गृहस्थ अपने जलते हुए घर में से मूल्यवान वस्तुओं को बचाने की चेष्टा करता है, उसी भांति मेरा आत्मा भी बहुमूल्य है। वह इष्ट है, कान्त है; प्रिय, सुन्दर, मन के अनुकूल, स्थिर एवं विश्वासपात्र है। इसलिए भूख-प्यास, सन्निपात, परीषह तथा उपसर्ग उसकी हानि करे, इसके प्रथम ही उसे बचा लूं, मैं यह चाहता हूं। वह आत्मा मुझे परलोक में हितरूप, सुखरूप, कुशलरूप तथा परम्परा से कल्याणरूप होगा। इसलिए हे प्रियाओ, मैं चाहता हूं कि प्रव्रजित होऊं और प्रतिलेखनादि आचारक्रियाओं को सीखूं। माता का उपदेश है कि मैं एकबारगी ही कठिन त्याग न करूं। सो मैंने प्रतिदिन एकाशन करने और एक पत्नी को त्यागने की इच्छा की है। अब तुममें जो मुझे सबसे अधिक प्रेम करती हो, वह मेरे कल्याण के लिए स्वेच्छा से मुझे आज बन्धनमुक्त करे इसके बाद दूसरी, फिर तीसरी।"

इस पर विदेह के वाणिज्यग्राम के सुदर्शन सेट्ठि की पुत्री सुश्री पद्मावती ने बड़े-बड़े लोचनों में मोती के समान आंसू भरकर कहा—"नाथ, यह शरीर, यौवन और सम्पत्ति स्थिर नहीं। आप यदि आत्मा की मुक्ति के लिए कृतोद्यम हैं, तो मैं आपको पति-भाव से मुक्त करती हूं।" यह कहकर उसने अपने सब शृंगार और सौभाग्य-चिह्न त्याग एक क्षौम वस्त्र धारण कर लिया और भूपात कर शालिभद्र का अभिवादन करके कहा—"अय्य, मैं भी आत्मा की उन्नति के लिए आपका अनुसरण करूंगी।"

इस पर शालिभद्र ने कहा—"उदग्र हूं, भद्रे, आप्यायित हूं। आ, फिर हम दोनों ही आज स्वेच्छया पिण्डपात ग्रहण करें।"

इस पर शालिभद्र की शेष वधुओं ने दोनों को पूजन-अर्चन कराकर संतर्पित किया।

शालिभद्र प्रतिदिन इसी प्रकार एक-एक करके अपनी पत्नियों को त्यागने लगा और वे श्रेष्ठा सुकुमारी श्रीमन्तकुमारी भी एक-एक कर कठिन व्रत लेती गईं।

शालिभद्र की छोटी बहिन राजगृह ही में धन्य सेट्ठि को ब्याही थी। उसने जब यह सुना तो वह बहुत रोई तथा रोते-रोते भाई के कठोर व्रत धारण करने की बात पति से कहने लगी।

धन्य सेट्ठि ने उसकी हंसी उड़ाते हुए हंसकर कहा—"अरी, चिन्ता न कर, रोज़-रोज़ एक-एक स्त्री की शय्या त्यागने वाला साधु नहीं हो सकता।"

इस पर उसकी स्त्री ने क्रुद्ध होकर ताना मारा और कहा—"तुम्हें यदि यह काम इतना सहज दीखता हो तो तुम्हीं न साधु हो जाओ।"

धन्य सेट्ठि को पत्नी की बात चुभ गई और उसने उसी क्षण सर्वजित् महावीर के पास जाकर दीक्षा ले ली। शालिभद्र ने जब यह सुना तो वह भी घर से निकल चला और उसने भी महावीर से दीक्षा ली।

दोनों सेट्ठियों ने सर्वजित् महावीर का उपदेश अङ्गीभूत करके खड्ग की धार के समान तीक्ष्ण तप करना प्रारम्भ किया। बिना शरीर की परवाह किए वे साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक, द्विमासिक उपवास करने लगे। इससे उनका शरीर केवल हाड़ पर मढ़े चर्म की मूर्ति-सा हो गया।

श्रमण महावीर तब राजगृह में चातुर्मास व्यतीत कर रहे थे। द्विमासिक उपवास करने के बाद जब पारण करने के लिए भिक्षा मांगने की उन्होंने अनुमति मांगी, तब महावीर ने कहा—"अपने घर जाकर अपनी माता से भिक्षा ग्रहण कर पारण करो।"

तब शालिभद्र और धन्य दोनों ही चुपचाप जाकर भद्रा सेट्ठिनी के द्वार पर खड़े हो गए।

पुत्र की व्रत-समाप्ति और पारण की सूचना भद्रा-सेट्ठिनी को लग चकी थी। वह पुत्र का पारण सम्पूर्ण कराने को जल्दी-जल्दी चलकर, जहां सर्वजित् महावीर थे, वहां पहुंची। जल्दी में द्वार पर उपवास से कृशांगीभूत पुत्र और जामाता को खड़ा देखकर उसने पहचाना नहीं। कुछ देर वहां खड़े रहकर वे पीछे लौटे, मार्ग में एक ग्वालिन ने उन्हें पारण कराया। लौटकर उन्होंने श्रमण से अन्तिम व्रत-अनुष्ठान की अनुमति मांगी। अनुमति मिलने पर वे वैभार गिरि पर चले गए।

भद्रा ने श्रमण के पास पहुंचकर अपने पुत्र और जामाता के सम्बन्ध में प्रश्न किए। महावीर ने कहा—

"वे तेरे द्वार पर भिक्षा के लिए गए थे। परन्तु यहां आने की उतावली में तूने उन्हें पहचाना नहीं। अब वे दोनों मुनि मेरे निकट अन्तिम अनशन व्रत ग्रहण कर संसार से मुक्त होने के विचार से अभी-अभी वैभार गिरि पर चले गए हैं।"

अन्तिम अनशनों की बात सुनकर भद्रा सेट्ठिनी का हृदय विदीर्ण हो गया। सम्राट बिम्बसार ने भी सुना और वे आए। दोनों ने वैभार गिरि पर जाकर देखा—दोनों मुनि शांत स्थिर मुद्रा में शिलाखण्ड के सहारे स्थिर पड़े हैं। देखकर भद्रा विलाप करने लगी। वह द्विमासिक उपवास के बाद स्वेच्छा से भिक्षा के लिए द्वार पर आए पुत्र को न पहचानने के लिए अपने को तथा स्त्री-जाति को बारम्बार धिक्कार देने लगी। श्रेणिक बिम्बसार ने उसे समझाया और कहा—"भद्रे सेट्ठिनी, अब अन्तिम व्रत में उपवेशित पुत्र को अपने रुदन से व्यथित करना ठीक नहीं है।"

वह बार-बार पुत्र की प्रदक्षिणा करके लौटी और धन्य तथा शालिभद्र ने उसी उपवास में शरीर त्याग किया।

   1
1 Comments

fiza Tanvi

27-Dec-2021 03:46 AM

Good

Reply